पुलिस व्यवस्था पर उठे गंभीर सवाल
1861 के कानून से आज की पुलिसिंग तक, FIR और विवेचना की प्रक्रिया कटघरे मे
रिपोर्ट: बीरबल गुप्ता सपहा कुशीनगर
कुशीनगर।
देश की पुलिस व्यवस्था आज भी ब्रिटिश शासनकाल के पुलिस रेगुलेटिंग एक्ट–1861 के तहत संचालित हो रही है। इस कानून का मूल उद्देश्य जनता की सेवा नहीं, बल्कि शासन की सुरक्षा था। बदलते समय, तकनीक और कानूनों के बावजूद पुलिस की कार्यशैली को लेकर आमजन में असंतोष बढ़ता जा रहा है। कुशीनगर में हाल के दिनों में FIR और विवेचना की प्रक्रिया को लेकर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं।
वरिष्ठ नागरिकों और जानकारों का कहना है कि 1980 के दशक की पुलिसिंग में पुलिस का दबदबा अधिक था, मीडिया और मानवाधिकार संस्थाएं सीमित थीं और आम आदमी पुलिस से डरता था। उस दौर में पुलिस पर जवाबदेही का दबाव कम था। वहीं, आज के समय में CCTV, सोशल मीडिया, मीडिया और मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाओं के कारण पुलिस की निगरानी तो बढ़ी है, लेकिन इसके बावजूद जमीनी स्तर पर कई खामियां बनी हुई हैं।
उग्र पुलिसिंग पर चिंता
स्थानीय लोगों का आरोप है कि पुलिस कई बार उग्र व्यवहार करती है। इसके पीछे राजनीतिक व प्रशासनिक दबाव, स्टाफ की कमी, अत्यधिक कार्यभार और मानसिक तनाव को प्रमुख कारण माना जा रहा है। जानकारों के अनुसार, गलत कार्रवाई पर सख्त दंड की व्यवस्था न होने से भी समस्या बढ़ रही है।
समाज बदला, पुलिस वहीं?
समाज अब पहले से अधिक जागरूक हो चुका है और अपने अधिकारों को लेकर खुलकर सवाल कर रहा है, जबकि पुलिस की कार्यसंस्कृति में अपेक्षित बदलाव नहीं हो पाया है। यही कारण है कि पुलिस और जनता के बीच टकराव की स्थिति बनती जा रही है।
कुशीनगर में FIR और विवेचना पर आरोप
कुशीनगर में यह सवाल सबसे ज्यादा चर्चा में है कि केवल तहरीर में नाम होने के आधार पर FIR दर्ज कर दी जाती है, जबकि विवेचना के दौरान संबंधित व्यक्ति का विवाद से कोई सीधा संबंध नहीं पाया जाता, फिर भी अंततः उसे आरोपी बना दिया जाता है। लोगों का कहना है कि यह कानून की मंशा के विपरीत है और इससे निर्दोष लोग मानसिक व सामाजिक रूप से प्रताड़ित होते हैं।
कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसे मामलों में पीड़ित व्यक्ति को उच्चाधिकारियों से शिकायत, विवेचना बदलवाने की मांग, न्यायालय में डिस्चार्ज प्रार्थना पत्र तथा मानवाधिकार आयोग का सहारा लेना चाहिए।
मीडिया और मानवाधिकार की भूमिका
मीडिया और मानवाधिकार संस्थाएं मौजूद होने के बावजूद आमजन में यह धारणा बन रही है कि कुछ पुलिसकर्मी इनसे बेखौफ होकर कार्य कर रहे हैं, जबकि ईमानदार पुलिसकर्मी आज भी कानून के दायरे में रहकर अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
निष्कर्ष
लोगों का मानना है कि समस्या किसी एक थाने या एक पुलिसकर्मी की नहीं, बल्कि पूरे पुलिस सिस्टम और पुराने कानून की है। जब तक पुलिस व्यवस्था में मूलभूत सुधार, विवेचना की जवाबदेही और जनहित को प्राथमिकता नहीं दी जाती, तब तक ऐसे सवाल उठते रहेंगे और पुलिस-जनता के बीच विश्वास की खाई बनी