जब गरीब की चिंता अपराध बन जाए और संवेदनशील लोग अस्पताल पहुंचा दिए जाएं
हॉस्पिटल में भर्ती के बाद अपनी आवाज नहीं रोके
डॉ. संपूर्णानंद गांधी का जिला संयुक्त चिकित्सालय, गोरखपुर के प्राइवेट वार्ड के कक्ष संख्या–4 में भर्ती होना केवल एक स्वास्थ्य समाचार नहीं है, बल्कि यह उस व्यवस्था पर करारा सवाल है, जिसमें गरीबों की पीड़ा को महसूस करना ही सबसे बड़ा अपराध बनता जा रहा है। चिकित्सकों के अनुसार उनकी स्थिति फिलहाल स्थिर है, लेकिन समाज की स्थिति आज भी अस्थिर बनी हुई है।
डॉ. संपूर्णानंद गांधी उन चुनिंदा गांधीवादी विचारकों में हैं, जिन्होंने गरीब, मजदूर और वंचित वर्ग की समस्याओं को सिर्फ भाषणों या लेखों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्हें अपने जीवन का संघर्ष बनाया। वे बार-बार यह सवाल उठाते रहे कि आज भी गरीब को बेहतर इलाज, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सम्मानजनक रोजगार क्यों नहीं मिल पाता। जब सरकारें आंकड़ों में विकास दिखाती हैं, तब वे ज़मीनी हकीकत सामने रखते हैं।
आज हालत यह है कि एक गरीब का बच्चा अच्छे स्कूल का सपना देखे, तो उसे फीस रोक देती है। बीमार पड़े, तो इलाज की लागत। नौकरी की दौड़ में उतरे, तो पैसे और सिफारिश की दीवार। यही सच्चाई डॉ. गांधी को भीतर से कचोटती रही और यही चिंता धीरे-धीरे उनकी सेहत पर भारी पड़ गई।
यह सवाल आज भी अनुत्तरित है कि भूखे, तड़पते और गरीबी से जूझते लोगों के बच्चों की शिक्षा और भविष्य की जिम्मेदारी आखिर कौन लेगा? अगर सरकारें इस जिम्मेदारी से बचती रहीं, तो क्या यह बोझ केवल सामाजिक कार्यकर्ताओं और संवेदनशील व्यक्तियों के कंधों पर डाल दिया जाएगा?
डॉ. गांधी का अस्पताल पहुंचना यह दर्शाता है कि हमारे समाज में अन्याय केवल पीड़ितों को ही नहीं, बल्कि उनके लिए आवाज़ उठाने वालों को भी तोड़ देता है। जब संवेदनशीलता बीमारी बन जाए और संवेदना कमजोरी समझी जाए, तब यह मान लेना चाहिए कि व्यवस्था गंभीर रूप से बीमार है।
विकास के दावों के बीच यह याद रखना जरूरी है कि असली विकास वही है, जिसमें गरीब सम्मान के साथ जी सके, उसका बच्चा पढ़ सके और बीमारी में इलाज के लिए हाथ न फैलाए। यदि यह संभव नहीं है, तो आंकड़ों का विकास खोखला है।
डॉ. संपूर्णानंद गांधी जैसे लोग समाज की अंतरात्मा होते हैं। उनका स्वस्थ रहना इसलिए जरूरी नहीं कि वे एक व्यक्ति हैं, बल्कि इसलिए कि वे उस सच को बोलते हैं जिसे व्यवस्था सुनना नहीं चाहती। उनकी बीमारी हमें चेतावनी देती है कि अगर गरीब की चिंता करने वाली आवाजें यूं ही दबती रहीं, तो आने वाले समय में समाज केवल आर्थिक नहीं, नैतिक रूप से भी दिवालिया हो जाएगा।
आज जरूरत है कि सरकारें, नीति-निर्माता और समाज यह तय करें कि गरीब के बच्चों की शिक्षा, इलाज और भविष्य की जिम्मेदारी आखिर किसकी है। क्योंकि यदि गरीब की चिंता करना अपराध बनता रहा, तो अस्पताल के बिस्तर पर केवल डॉ. गांधी ही नहीं, हमारी पूरी संवेदना लेटी मिलेगी।