समस्या इंसान की
संपादकीय के एन साहनी
एक संवेदनशील संपादकीय
अगर आप भारत सरकार की महत्वाकांक्षी आयुष्मान भारत–प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के तहत आयुष्मान कार्ड बनवाना चाहते हैं, और सरकारी सूची में आपका नाम दर्ज नहीं है, तो इलाज की राह बेहद कठिन हो जाती है। ऐसी स्थिति में गरीब और साधारण परिवारों को मजबूरी में घर, खेत या गहने बेचकर इलाज कराना पड़ रहा है।
उत्तर प्रदेश, विशेषकर कुशीनगर जनपद में रहने वाले अनेक सरल-साधारण परिवार आज आयुष्मान कार्ड के लिए दफ्तर-दर-दफ्तर भटकने को मजबूर हैं। कहीं भी जाने पर उन्हें एक ही जवाब मिलता है—
“2018 के सर्वे में आपका नाम सूचीबद्ध नहीं है, इसलिए आपका आयुष्मान कार्ड नहीं बन सकता।”
यह सवाल बेहद गंभीर है कि—
क्या 2018 के बाद गरीब नहीं बढ़े?
क्या बीमारी सर्वे देखकर आती है?
सरकार ने योजना बनाई गरीब के इलाज के लिए, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि वही गरीब आज सबसे ज्यादा तकनीकी खामियों और अफसरशाही का शिकार हो रहा है। जिन लोगों के पास न पक्का मकान है, न स्थायी आमदनी, न बड़ी जमीन—वही लोग सूची से बाहर बताए जा रहे हैं।
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या कुशीनगर में सरकार के नुमाइंदे और जिम्मेदार अधिकारी इन लोगों की मदद नहीं कर सकते?
जब योजना सरकार की है, तो समस्या का समाधान निकालना भी सरकार और उसके तंत्र की जिम्मेदारी है। सर्वे में छूट गए नामों को जोड़ने, सत्यापन कराने और पात्र लोगों को लाभ दिलाने के लिए स्थानीय प्रशासन को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।
अगर आज भी गरीब यह सुनने को मजबूर है कि “नाम लिस्ट में नहीं है”, तो यह योजना की नहीं, व्यवस्था की विफलता है। आयुष्मान कार्ड कोई एहसान नहीं, बल्कि गरीब का अधिकार है।
अब वक्त आ गया है कि सरकार और प्रशासन कागजी नियमों से ऊपर उठकर मानवीय दृष्टिकोण अपनाए, ताकि इलाज के अभाव में कोई इंसान अपनी जमीन-जायदाद बेचने को मजबूर न हो।
संपादकीय : के. एन. साहनी