सामाजिक मान्यताएँ, दिशाएँ और जातिगत बसावट: एक विवेचन
संपादकीय
के. एन. साहनी
Om Patrika News
ग्रामीण भारत की सामाजिक संरचना केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि आस्था, परंपरा और सदियों पुरानी मान्यताओं से गहराई से जुड़ी रही है। गांवों में दिशाओं का महत्व, वृक्षों की पूजा और बस्तियों की स्थिति—ये सभी किसी संयोग का परिणाम नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना और ऐतिहासिक सोच का प्रतिबिंब हैं।
सबसे पहले प्रश्न उठता है—क्या यह सच है कि गांव के पूरब में पीपल के वृक्ष को ब्रह्मदेव और पश्चिम में नीम के वृक्ष को देवी दुर्गा के रूप में पूजा जाता है?
उत्तर है—यह मान्यता कई गांवों में प्रचलित रही है। पीपल को सृजन, ज्ञान और ब्रह्म तत्व से जोड़ा गया, जबकि नीम को शक्ति, रोग नाश और संरक्षण का प्रतीक माना गया। इसलिए इन वृक्षों की पूजा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि पर्यावरण और स्वास्थ्य से जुड़ी लोक-चेतना भी थी।
लेकिन इससे भी अधिक गंभीर प्रश्न है—लगभग हर जिले, हर गांव में दक्षिण दिशा में हरिजन (दलित) बस्ती क्यों बसाई गई?
यह कोई प्राकृतिक नियम नहीं, बल्कि सामाजिक भेदभाव की ऐतिहासिक सच्चाई है। दक्षिण दिशा को लेकर यह धारणा बनाई गई कि वह “अशुभ” है। इसी सोच के कारण समाज के कमजोर और वंचित वर्गों को गांव की मुख्य धारा से दूर, दक्षिण दिशा में बसाया गया।
“बेटा, दक्षिण मत जाना”
दरअसल बच्चों के मन में भय और हीन भावना भरने का एक सामाजिक अभ्यास था। यह भय दिशाओं से कम और मानव-निर्मित जातिगत व्यवस्था से अधिक जुड़ा था।
सवाल यह नहीं कि दक्षिण दिशा अशुभ है या नहीं, सवाल यह है कि
क्या किसी इंसान को उसकी जाति के आधार पर ‘अशुभ’ दिशा में रहने को मजबूर करना न्यायसंगत था?
उत्तर स्पष्ट है—नहीं।
आज जब हम संविधान, समानता और सामाजिक न्याय की बात करते हैं, तो ऐसी मान्यताओं की समीक्षा आवश्यक है। वृक्षों की पूजा हमारी सांस्कृतिक विरासत हो सकती है, लेकिन मनुष्यों के बीच ऊँच-नीच का कोई धार्मिक या नैतिक आधार नहीं हो सकता।
समाज को यह समझना होगा कि
दिशाएँ अशुभ नहीं होतीं,
वृक्ष केवल पूज्य नहीं, संरक्षक होते हैं,
और हरिजन बस्ती नहीं—हर नागरिक समान होता है।
अब समय आ गया है कि हम परंपरा और पाखंड के बीच फर्क करें।
जो परंपरा मानवता को जोड़ती है, उसे अपनाएँ—
और जो परंपरा समाज को तोड़ती है, उसे इतिहास के पन्नों में छोड़ दें।
— के. एन. साहनी
Om Patrika News