संपादकीय : प्रेम, कानून और टूटता सामाजिक संतुलन
के. एन. साहनी, गोरखपुर
देश और समाज आज जिस दिशा में बढ़ रहा है, वह न केवल चिंताजनक है बल्कि आत्ममंथन की भी मांग करता है। स्वतंत्रता और अधिकारों की आड़ में एक ऐसा चलन तेज़ी से पनप रहा है, जिसकी कोई सीमा, कोई मर्यादा और कोई सामाजिक जवाबदेही शेष नहीं दिखती। प्रेम के नाम पर घर छोड़कर भाग जाना अब सामान्य घटना बनती जा रही है, लेकिन इसके पीछे छिपे दर्द, अपमान और त्रासदी पर न समाज बोल रहा है और न ही कानून संवेदनशील दिखता है।
एक समय था जब गांवों में सामाजिक अनुशासन हुआ करता था। पंचायत, समाज और सरपंच की भूमिका केवल सत्ता नहीं बल्कि सामाजिक मर्यादा की रक्षक होती थी। किसी महिला या पुरुष से जुड़ा अनुचित आचरण सार्वजनिक रूप से निंदनीय माना जाता था और समाज के स्तर पर उस पर नियंत्रण भी होता था। आज वही समाज मूक दर्शक बना खड़ा है और कानून स्वयं को असहाय बताकर पीछे हट गया है।
आज की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि माता-पिता, जिन्होंने अपने बच्चों को जन्म से जवानी तक खून-पसीना एक कर पाला, वही माता-पिता थानों और चौखटों पर अपमानित हो रहे हैं। पुलिस द्वारा यह कह देना कि “वे बालिग हैं, कोर्ट भी कुछ नहीं कर सकती” — केवल एक कानूनी टिप्पणी नहीं, बल्कि संवेदनहीनता का प्रमाण है। सवाल यह नहीं है कि लड़का-लड़की बालिग हैं या नहीं, सवाल यह है कि क्या माता-पिता की भावनाएं, उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और उनका जीवन भर का त्याग किसी कानून की नजर में कोई मायने नहीं रखता?
प्रेम करना अपराध नहीं है, लेकिन प्रेम के नाम पर माता-पिता को जीवित रहते हुए जमीन में गाड़ देना कौन सा अधिकार है? जिस समाज में संतान सुख का नहीं बल्कि जीवन भर के गहरे घाव का कारण बन जाए, वहां कानून की भूमिका पर सवाल उठना स्वाभाविक है। सामाजिक प्रतिष्ठा, जातीय तनाव, मानसिक पीड़ा और आत्महत्या जैसे मामलों के पीछे यही तथाकथित “निजी स्वतंत्रता” एक बड़ा कारण बनती जा रही है।
यह समय है जब देश की न्यायिक व्यवस्था और विधायिका इस विषय पर गंभीरता से विचार करे। माता-पिता को केवल जन्मदाता मानकर उनके अधिकारों की अनदेखी नहीं की जा सकती। यदि कोई संतान अपने फैसले से माता-पिता को मानसिक, सामाजिक और आर्थिक क्षति पहुंचाती है, तो उसकी भी जवाबदेही तय होनी चाहिए। कानून का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन बनाए रखना भी है।
माननीय न्यायालयों से अपेक्षा है कि वे इस बढ़ती सामाजिक विकृति पर संज्ञान लें। आवश्यकता है ऐसे कानून की, जो स्वतंत्रता और जिम्मेदारी के बीच संतुलन स्थापित करे। वरना आने वाला समय परिवार, समाज और संस्कार—तीनों के लिए और अधिक भयावह होगा।
आज सवाल सिर्फ प्रेम का नहीं, सवाल समाज के भविष्य का है। अगर माता-पिता की पीड़ा भी कानून की नजर में अदृश्य रही, तो यह लोकतंत्र और न्याय—दोनों की सबसे बड़ी विफलता होगी।